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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...


ख़बर कुछ यूँ थी-गर्भवती बीवी खाना परोस रही थी। मियाँ जब खाने बैठा तो उसे भात में एक बाल नज़र आ गया। मियाँ उठा और ज्योत्स्ना बीवी के बालों को मुट्ठी में दबोचकर, उसे मारते-मारते उसके बदन पर किरोसिन उँड़ेलकर जला डाला।

यह घटना मुर्शिदाबाद के किसी गाँव में घटी।

यह खबर सुनकर मेरे कुछेक परिचित लोगों ने मन्तव्य किया, 'ये मुसलमान, कहीं से भी इन्सान नहीं होते ऐसी जघन्य करतूत ये लोग ही कर सकते हैं।'

मैंने तापसी मलिक का हादसा याद न दिलाते हुए, उसी दिन की और एक ख़बर का उल्लेख किया प्रेमिका, सुमना बसु ने बात नहीं मानी इसलिए उसके प्रेमी अभिषेक चौधरी ने उस्तरे से गला रेत दिया।

उन परिचित लोगों को मैंने यह समझाने की कोशिश की, 'यह सब हिन्द-मसलमान का मामला नहीं है। यह लिंग-वैषम्य का मामला है। औरत को मर्दो की दासी और सेक्स-सामग्री समझ लेने की मानसिकता का मामला है। सभी धर्म-समुदाय में औरत की बेइज्जती करने, अवहेलना करने और अपमानित करने का, सभी किस्म का माहौल मौजूद रहता है।'

मेरे परिचित लोगों ने अपनी-अपनी राह ली। मेरी बात वे लोग कितना समझ पाये या नहीं समझ पाये, मैं नहीं जानती। उस बस में अगर वे लोग भी मौजूद होते, मुझे पक्का विश्वास है कि और-और लोगों की तरह ये लोग भी इसी ढंग से पेश आते, सारा कुछ खामोशी से देखते, किसी की जुबान से एक भी शब्द नहीं फूटता। मैं उस बस का ज़िक्र कर रही हूँ जिस बस में दो छोकरे एक जवान औरत के साथ छेड़छाड़ कर रहे थे। बाकी लोग देख कर भी अनदेखा कर रहे थे। सिर्फ़ जगन्नाथ और शुभेन्द्र नामक दो मुसाफिर विरोध करने के लिए आगे बढ़ आये। उधर उन दोनों छोकरों के साथ चार और छोकरे आ मिले और जगन्नाथ तथा उसके साथी को अन्धाधुन्ध पीटने लगे। जब वे दोनों लड़के मार खा रहे थे बस के बाकी मुसाफिर ख़ामोश बैठे रहे। किसी ने प्रतिवाद नहीं किया, यहाँ तक कि उस वक़्त भी प्रतिवाद नहीं किया, जब लोगों की नज़रों के सामने ही आठों लड़कों को बस से ज़बर्दस्ती उतार दिया गया। यह बात सभी लोगों को बखूबी समझ में आ गयी कि यूँ बस से उतार देने के बाद, वे दुर्जन लड़के भले लड़कों को और बेखटके मार-पीट सकेंगे, यहाँ तक कि जान भी ले सकते हैं।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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